चिट्ठाजगत रफ़्तार

Thursday, December 30, 2010

ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया..मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया

ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया


मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया



मुस्कराहट में दबी- दबी सी एक आह थी

कांपते लबों में एक अनबुझी सी चाह थी

सांस- सांस में छिपी दर्द की कराह थी

खौफ़ से भरी डरी- डरी हर इक निगाह थी



ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया

मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया



जो बुलन्द दिल दिखे, उनमें खाइयां मिलीं

पाक हाज़ियों के घर भी सुराहियां मिलीं

डोलतीं हसीन रुख पे हवाइयां मिलीं

क्रीम पाउडर तले लाख झाइयां मिलीं



ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया

मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया



ज़िन्दगी का ये तमाम ताम- झाम झूठ है

इम्तिहान झूठ, रस्म-ए-इनाम झूठ है

पांच साल के लिये चुनावे-आम झूठ है

दावा कि हुकूमत-ए-अवाम है ये झूठ है



ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया


मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया

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