है कितना आसां कह देना.....
कि बीत गई सो बात गई........
एक दाग उम्र को दे कर के
मुझ को ये बीती रात गई.....।
कैसे कह दूं माज़ी मेरा
कल परदे में छिप जायेगा
एक पहर वक्त की घड़ी चली
और सूत उम्र का कात गई....।
है जाल ज़िन्दगी का ऐसा.....
मर कर ही कोई निकल पाया
हर वार गया खाली मेरा...
खाली मेरी हर घात गई....।
हम खेल ज़िन्दगी का खेले .....
पर आखिर ये अन्ज़ाम हुआ
न आर हुए न पार हुए
मेरी सब शह और मात गई....।
हमसफ़र बने वो कुछ ऐसे
कि संग चले और बिछड़ गये
रफ़्तार मुख्तलिफ़ थी अपनी....
मैं डाल डाल वो पात गई....।
जब पेट भरा हो फ़ाके से
तो क्या कलाम लिख पायेगा
मुफ़लिसी मुझ पर ऐसी छाई....
कि कलम गई और दवात गई..........।।
Tuesday, December 14, 2010
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हम खेल ज़िन्दगी का खेले .....
ReplyDeleteपर आखिर ये अन्ज़ाम हुआ
न आर हुए न पार हुए
मेरी सब शह और मात गई....।
क्या बात कही है। जारी रखिये।
जब पेट भरा हो फ़ाके से
ReplyDeleteतो क्या कलाम लिख पायेगा
मुफ़लिसी मुझ पर ऐसी छाई....
कि कलम गई और दवात गई..
क्या बात है, अच्छी लगी !
अच्छी रचना...
ReplyDeleteप्रेमरस.कॉम
bahut achcha likha hai aapne
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