चिट्ठाजगत रफ़्तार

Thursday, December 30, 2010

ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया..मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया

ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया


मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया



मुस्कराहट में दबी- दबी सी एक आह थी

कांपते लबों में एक अनबुझी सी चाह थी

सांस- सांस में छिपी दर्द की कराह थी

खौफ़ से भरी डरी- डरी हर इक निगाह थी



ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया

मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया



जो बुलन्द दिल दिखे, उनमें खाइयां मिलीं

पाक हाज़ियों के घर भी सुराहियां मिलीं

डोलतीं हसीन रुख पे हवाइयां मिलीं

क्रीम पाउडर तले लाख झाइयां मिलीं



ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया

मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया



ज़िन्दगी का ये तमाम ताम- झाम झूठ है

इम्तिहान झूठ, रस्म-ए-इनाम झूठ है

पांच साल के लिये चुनावे-आम झूठ है

दावा कि हुकूमत-ए-अवाम है ये झूठ है



ज़िन्दगी को ढूंढता मैं कहां- कहां गया


मौत का आलम मिला मैं जहां- जहां गया

Tuesday, December 14, 2010

है कितना आसां कह देना.....कि बीत गई सो बात गई........

है कितना आसां कह देना.....
कि बीत गई सो बात गई........
एक दाग उम्र को दे कर के
मुझ को ये बीती रात गई.....।


कैसे कह दूं माज़ी मेरा
कल परदे में छिप जायेगा
एक पहर वक्त की घड़ी चली
 और सूत उम्र का कात गई....।


है जाल ज़िन्दगी का ऐसा.....
मर कर ही कोई निकल पाया
हर वार गया खाली मेरा...
 खाली मेरी हर घात गई....।


हम खेल ज़िन्दगी का खेले .....
पर आखिर ये अन्ज़ाम हुआ
न आर हुए न पार हुए
 मेरी सब शह और मात गई....।


हमसफ़र बने वो कुछ ऐसे
कि संग चले और बिछड़ गये
रफ़्तार मुख्तलिफ़ थी अपनी....
 मैं डाल डाल वो पात गई....।


जब पेट भरा हो फ़ाके से
 तो क्या कलाम लिख पायेगा
मुफ़लिसी मुझ पर ऐसी छाई....
 कि कलम गई और  दवात गई..........।।

Monday, December 13, 2010

शायर के दिल की मत पूछो.... उड़ने का विस्तार बहुत है.....

कापी भर गई कहां लिखूं ......
अब लिखने की रफ़्तार बहुत है
शायर के दिल की मत पूछो....
उड़ने का विस्तार बहुत है।।


मन करता है लगातार
 महफ़िल में अपनी गज़ल सुनाऊं....
अन्य सुखनबर कहते हैं....
बस करो एक ही यार बहुत है।।


सात सुरों, तीनों सप्तक में.....
गायन करने का मन चाहे
सुनने वाले कहते हैं कि.....
 वीणा का एक तार बहुत है।।


लिखना अपना रोकूं कैसे.....
वाद्य को कैसे बहलाऊं
रुके लेखनी स्वर कुंठित हो.....
 कलाकार को मार बहुत है।।


कैसे करूं तमन्ना ज़ाहिर......
 महफ़िल को कैसे बतलाऊं...
ताना दें सब मुझ को........
 कि अपने को समझे फ़नकार बहुत है.।।

Tuesday, December 7, 2010

वफ़ा करने वाले वो आशिक कहाँ हैं.........

वफ़ा करने वाले
वो आशिक कहाँ हैं।

जफ़ाएं,
 सभी के दिलों में निहां हैं।।


पुलिस,
 लीडरों की तवायफ़ बनी है।
शरीफ़ हैं सलाखों में,
 गुन्डे रिहा हैं।।


अदालत दबी है,
हुकूमत के आगे।
कहने को,
 कानून पलते वहां हैं।।


वकीलों के आगे,
 न कोई टिका है।
सच और सफ़ेदी को,
करते सियाह हैं।।


प्रजातन्त्र गणतन्त्र,
 बस नाम के हैं।
शरीफ़ आज जीते,
 डरे से यहां हैं।।


अब खत्म कर दो,
चुन चुन के सारे।
दहशतफ़रोशों के,
अड्डे जहां हैं. ।।