मैने तो एक दुआ माँगी थी,उनसे,
पर बो,एक भी इबादत पर गौर ना कर सके................
मैने तो किनारे पर कश्ती माँगी थी,
पर बो,तूफानों का रुख कहीं और ना कर सके.................
मैने तो एक महफिल माँगी थी,उनसे
पर बो,शबाब,शराब का दौर ना कर सके.....................
सोचा था समझौता कर लेंगे,जिंदगी से..
पर उसका क्या,जो अमृतसर-लाहौर ना कर सके................
बो क्या समझने की कोशिश करते मेरे जज्बात को,
जो अपने ही सिक्के की तौल ना कर सके..................
जख्म इतने मिले कि शायद मौत भी कम थी,
पर बो इरादों को कमजोर ना कर सके..............
Wednesday, August 11, 2010
Wednesday, August 4, 2010
शिक्षा क्या स्वर साध सकेगी,यदि नैतिक आधार नहीं है........
यह कविता उन्मुक्त जी की लेखनी से लिखित है.......
उनकी यह वाणी अपने माध्यम से तमाम पाठकों को समर्पित है..............
शील,विनय,आदर्श,श्रेष्ठता,तार बिना झंकार नहीं है............
शिक्षा क्या स्वर साध सकेगी,यदि नैतिक आधार नहीं है........
आविष्कारों की कृतियों में,यदि मानव का प्यार नहीं है............
सृजनहीन विज्ञान ब्यर्थ है,प्राणी का उपकार नहीं है.............
माना,अगम,अगाध,सिन्धु है,संघर्षों का पार नहीं है..........
किन्तु डूबना मँझधारों में नाविक को स्वीकार नहीं है.............
उनकी यह वाणी अपने माध्यम से तमाम पाठकों को समर्पित है..............
शील,विनय,आदर्श,श्रेष्ठता,तार बिना झंकार नहीं है............
शिक्षा क्या स्वर साध सकेगी,यदि नैतिक आधार नहीं है........
आविष्कारों की कृतियों में,यदि मानव का प्यार नहीं है............
सृजनहीन विज्ञान ब्यर्थ है,प्राणी का उपकार नहीं है.............
माना,अगम,अगाध,सिन्धु है,संघर्षों का पार नहीं है..........
किन्तु डूबना मँझधारों में नाविक को स्वीकार नहीं है.............
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