हर रात सोचता हूँ,
एक नई सुबह आये,
सुबह तो हर रोज़ आती है,पर
बैरंग चली आती है
फिर सोचा,कि
ये रात बदल जाए,
पर,ख्वाव वदलकर,
सुनसान चली आती है.......
अब तो ये दिन-रात,
भी अपने न रहे,
जैसे,आँखों में,ओझल,
सपने ना रहे,
मंजिल की तलाश है,
शायद,मिल जाये
पर,रास्तों की भी,
फिज़ाएँ बदल जाती हैं..........
फिर सोचा,
इस किस्मत को बदला जाए
पर इसका भी क्या भरोसा,
कभी भी,शादी होकर,
ससुराल चली जाती है............
बैठे हैं वक्त के सहारे,
शायद बदल जाये
और,ये बोझिल जिन्दगी,
सचमुच ओझल हो जाये....
पर,हमने तो वक्त का,
वह रुख भी देखा है
जीते आदमी को,मौत की दुआ,
करते देखा है
लेकिन,कश्ती की तरह किनारे का इंतजार है.........
नाविक हूँ,लहरों से लड़ना स्वीकार है.............
Saturday, July 31, 2010
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हिम्मत बनाये रखिये वह सुबह कभी तो आएगी अच्छी रचना बधाई
ReplyDeleteBAHUT KHUB
ReplyDeleteज़िन्दगी की सच्चाई को दिखा दिया ……………उम्दा प्रस्तुति।
ReplyDeleteकल (2/8/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
wah wah kya baat h..........
ReplyDeleteyahi reality h.........
bahut bhut achi .......
maza a gaya.........