चिट्ठाजगत रफ़्तार

Friday, April 16, 2010

मजबूरी...

नहीं खिंच रहा रिक्शा फिर भी खींच रहा हूँ
स्वेद कणों से घर की बगियां सींच रहा हूँ
नज़र डालते हैं लड़के जवान बेटी पर
मजबूरी में अपनी आखें मीच रहा हूँ.

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