नहीं खिंच रहा रिक्शा फिर भी खींच रहा हूँ
स्वेद कणों से घर की बगियां सींच रहा हूँ
नज़र डालते हैं लड़के जवान बेटी पर
मजबूरी में अपनी आखें मीच रहा हूँ.
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अक्सर जो मन में उमड़ा...पर ज़ुबां पर न आया... उसी प्रवाह में बहती है... कलम कहती है..
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