चिट्ठाजगत रफ़्तार

Wednesday, August 11, 2010

हम क्या करते समझौता,जो अमृतसर-लाहौर ना कर सके.......

मैने तो एक दुआ माँगी थी,उनसे,

पर बो,एक भी इबादत पर गौर ना कर सके................

मैने तो किनारे पर कश्ती माँगी थी,

पर बो,तूफानों का रुख कहीं और ना कर सके.................

मैने तो एक महफिल माँगी थी,उनसे

पर बो,शबाब,शराब का दौर ना कर सके.....................

सोचा था समझौता कर लेंगे,जिंदगी से..

पर उसका क्या,जो अमृतसर-लाहौर ना कर सके................

बो क्या समझने की कोशिश करते मेरे जज्बात को,

जो अपने ही सिक्के की तौल ना कर सके..................

जख्म इतने मिले कि शायद मौत भी कम थी,

पर बो इरादों को कमजोर ना कर सके..............

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