चिट्ठाजगत रफ़्तार

Sunday, November 21, 2010

अरे,सभँल जाओ,भाई,कभी हम भी इंसान थे............

एक दिन


गुजरे

हम शमसान से........

शायद

इस बात से

हम अनजान थे..........

रास्ते,

गलियाँ भी

वहुत सुनसान थे..........

तभी अचानक,

ठोकर लगी,

एक मचान से............

कपड़े झाड़कर,

उठे,बढे..

धम और शान से...........

मुर्दे की

बात को ,सुना

वहुत ही ध्यान से............

मुर्दे के भी,

सहसा,

यही वयान थे,

अरे,सभँल जाओ,

भाई,

कभी हम भी इंसान थे............

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