चिट्ठाजगत रफ़्तार

Monday, December 13, 2010

शायर के दिल की मत पूछो.... उड़ने का विस्तार बहुत है.....

कापी भर गई कहां लिखूं ......
अब लिखने की रफ़्तार बहुत है
शायर के दिल की मत पूछो....
उड़ने का विस्तार बहुत है।।


मन करता है लगातार
 महफ़िल में अपनी गज़ल सुनाऊं....
अन्य सुखनबर कहते हैं....
बस करो एक ही यार बहुत है।।


सात सुरों, तीनों सप्तक में.....
गायन करने का मन चाहे
सुनने वाले कहते हैं कि.....
 वीणा का एक तार बहुत है।।


लिखना अपना रोकूं कैसे.....
वाद्य को कैसे बहलाऊं
रुके लेखनी स्वर कुंठित हो.....
 कलाकार को मार बहुत है।।


कैसे करूं तमन्ना ज़ाहिर......
 महफ़िल को कैसे बतलाऊं...
ताना दें सब मुझ को........
 कि अपने को समझे फ़नकार बहुत है.।।

1 comment:

  1. ये रचना तो मुझे डॉ० महेश चन्द्र गुप्त "खलिश" की मालूम देती है। उनका नाम कहीं दिखाई नहीं दे रहा ? हां, posted by varun prakash ज़रूर चमक रहा है जैसे कि यही बड़ी बात हो कि वरुण प्रकाश जी ने इसे अपने ब्लॉग पर डालने की कृपा की।

    - घनश्याम

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